NPS and some unresolved questions


 इंकलाब जिंदाबाद के बड़े -बड़े  क्रांतिकारी और जोशीले नारों के बीच कभी कभी हम अपने छोटे छोटे अधिकारों की पुकार की आवाज सुन ही नहीं पाते।  या सुनते हैं तो उस पर कॉन्फिडेंस नहीं आता। कोई बताना समझना चाहता भी है तो हम सुनना नही चाहते।  जिसे बताना समझना चाहिए उसकी या तो प्राथमिकताएं बदल गई है या उसका इंटरेस्ट मर गया है या फिर उनकी व्यस्तताओं ने उन्हें असहाय बना दिया है।


बात इस सर्कुलर की हो रही है जिसे पेंशन विभाग के मंत्रालय ने जारी किया है। इस सर्कुलर के मुताबिक़ NPS के दायरे में आने वाले  सरकारी सेवा में संलग्न सभी कर्मियों अधिकारियों को सेवावधि में मृत्यु की स्थिति में फैमिली पेंशन  अंतिम वेतन के बेसिक का 60 फीसदी  +मंहगाई भत्ता  /  (60% of Basic of  last drawn salary+DA)  सुनिश्चित हुआ है।  अब प्रश्न ये है कि  क्या राष्ट्रीकृत बैंक के स्टॉफ सरकारी सेवा प्रदान कर रहे है या नहीं? इनकी नौकरी सरकारी है या नहीं। इस बाबत एक्सपर्स दो फाड़ में बटें हुए हैं। एक जो इसे सरकारी मानता है और दूसरा वो जो इन्हें सरकारी नही मानता । मैं कोई एक्सपर्ट नहीं .... इसलिए मेरा तर्क सपाट और सीधा हैं । अगर राष्ट्रीयकृत बैंक के कर्मी सरकारी नहीं तो हम निजीकरण का विरोध क्यों करते हैं? हम सरकारी कर्मी नहीं तो हमारे वेतन के पूर्णनिर्धारण में हर बार IBA और वित्त मंत्रालय क्यों हस्तक्षेप करता  है? हम सरकारी सेवा में नहीं तो हमारे पेंशन भोगी सेवानिवृत स्टॉफ क्यूं डायरेक्ट वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन जी मुलाकात और वार्तालाप करते हैं?  हम सरकारी सेवा में नहीं तो क्यों सरकार अपनी समस्त कल्याणकारी योजनाओं का ठीकड़ा हमारे सर फोड़ती है। हम सरकारी नौकर नही तो क्यों जान जेखिम से भरे इलेक्शन ड्यूटी में हम बैंककर्मियों को हर बार तैनात किया जाता है?   आदि आदि..........।


2010 से  कोरोना काल और आज तक भारत के राष्ट्रीकृत बैंको में NPS धारक कर्मियों की मृत्यु की संख्या हजारों में हैं जिसके आश्रित परिवार वाले विषम आर्थिक कठिनाओं का दंश रोज झेल रहे हैं। मेरा मानना है कि हम Scrap NPS के लोकतांत्रिक नारों से आसमान को थर्राते रहे मगर जो लोग इस दौरान दुनिया को अलविदा कह गए उनके साथ अन्याय न होने दें । 2009 से अब तक मृत हुए सभी NPS धारक कर्मियों की पहचान हो और इस सर्कुलर के मुताबिक़ उनके परिवार को फैमिली पेंशन दिलाने का प्रयास किया जाए। और यदि इसमें कोई अड़ंगा या कानूनी अर्चन आती है तो संगठन इस न्याय की लड़ाई का ईमानदार और निर्णायक आधार बने।



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